- जगदीश रत्तनानी
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार आचरण संहिता को लागू करने योग्य बनाये जाने के मामले में अपने पहले के दृष्टिकोण से पीछे हट गई है। 2020 में संसद में एक जवाब में सरकार ने खुलासा किया था जिसमें कहा गया था कि विभाग में अनैतिक प्रथाओं से संबंधित शिकायतों से निपटने का कोई प्रावधान नहीं है और इन्हें फार्मा एसोसिएशनों में एक नैतिक समिति द्वारा संभाला जाएगा।
यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि फार्मास्युटिकल सेक्टर ने बिक्री बढ़ाने में मदद करने वाले नुस्खे के बदले डॉक्टरों को 'प्रोत्साहन' देने की प्रथा को सामान्य व्यवहार बनाकर बिक्री और विपणन समस्या को हल करने के बजाय बढ़ाया ही है। इस क्षेत्र में भारत ने जो कुछ भी प्रतिष्ठा हासिल की है उस पर पानी फेरने का प्रयास ही किया है। दवा उद्योग में पूछने पर यह पता लगाना मुश्किल नहीं है कि अधिकांश विपणन प्रयासों की जड़ में डॉक्टरों व सर्जनों तथा संबंधित संस्थाओं को मरीजों को दी जाने वाली ब्रांडेड दवाइयों, चिकित्सा उपकरणों या उपचार से संबंधित आहार का नुस्खा लिखने के बदले में डॉक्टरों को 'खुश' करने की एक परिपूर्ण प्रणाली है जो स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों द्वारा पोषित है। यह एक घिनौना खेल है जिसकी श्रृंखला में दवाओं या उपकरणों का उत्पादन, वितरण और दवा लिखने वाला लगभग कोई भी व्यक्ति बेदाग नहीं निकलता है। चिकित्सा बिरादरी के खिलाड़ियों का एक छोटा समूह इसके खिलाफ खड़ा हो गया है लेकिन अब अच्छी तरह से स्थापित इस प्रणाली को रोकना मुश्किल साबित हो रहा है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ- साथ भारतीय कंपनियां भी इस खेल में शामिल हैं। हालांकि किसी विशेष ब्रांड का प्रसार करने के बदले में डॉक्टरों के लिए पुरस्कार एवं इनाम प्रणालियों के लिए हर कंपनी का स्वरूप अलग-अलग हो सकता है। वास्तव में बहुत खराब होने के बावजूद इस प्रणाली को अब अनुचित पद्धति के रूप में नहीं देखा जाता है। यह एक निकृष्ट और भ्रष्ट कार्यप्रणाली है जिसके लिए आम भारतीय रोगी अनिवार्य रूप से भारी कीमत चुकाता है।
फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एफएमआरएआई) और अन्य द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक रिट याचिका में इस भ्रष्ट प्रणाली के काम करने का तरीका बताया गया है। याचिका के पहले पैरा में कहा गया है- 'इस बात के बड़ी संख्या में उदाहरण मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि सकारात्मक स्वास्थ्य परिणामों को दवा क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार कैसे खतरे में डालता है। चाहे वह एक फार्मा कंपनी अपनी दवाओं को तर्कहीन रूप से लिखने के लिए सीधे डॉक्टर को रिश्वत दे रही हो या स्वास्थ्य की आवश्यकता के बावजूद या उन्हीं कारणों से स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर को अप्रत्यक्ष लाभ प्रदान कर रही हो, यह रोगी के स्वास्थ्य को जोखिम में डालने की कीमत पर हो रहा है। इस तरह के उल्लंघन लगातार और बहुत व्यापक हो रहे हैं।'
यह मुद्दा तब सुर्खियों में आया जब न्यायमूर्ति धनंजय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की खंडपीठ ने याचिका पर सुनवाई की। याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि दवाओं के प्रचार तथा मुफ्त उपहारों के वितरण पर फार्मा कंपनियों के लिए बनी स्वैच्छिक आचार संहिता को वैधानिक स्वरूप दिया जाए। खंडपीठ ने सरकार को याचिका पर अपना पक्ष रखने का समय दिया है। इस याचिका पर अगस्त के आरम्भ में हुई सुनवाई में एक पेरासिटामोल ब्रांड 'डोलो' की बिक्री में उल्लेखनीय वृद्धि को खंडपीठ के सामने लाया गया। सामान्यत: उपयोग में आने वाला पैरासिटामोल 500 मिलीग्राम की गोलियों की खुराक के रूप में दिया जाता है लेकिन 'डोलो' 500 मिलीग्राम के बजाय 650 मिलीग्राम खुराक के साथ है। कोविड-19 महामारी के दौरान डोलो-650 की बिक्री बढ़ी। निर्माता की वेबसाइट ब्रांड की तारीफ वाली मीडिया रिपोर्टों से भरी हुई है, जिनमें से एक शीर्षक है- 'अनुभव और नुस्खे की सही खुराक के कारण 'डोलो' हिट'। एक अन्य हेडिंग में कहा गया है, 'माइक्रो लैब्स ने कोविड-19 के दौरान डोलो-650 के कारण कैसे सोना कमाया।' कंपनी ने इस बात से इंकार किया है कि उसने मूल्य नियंत्रण से बचने के लिए अपने नुस्खे को आगे बढ़ाया या खुराक की मात्रा बदल दी।
याचिका के मूल में और अब छिड़ रही बड़ी बहस यह है कि क्या दवा उद्योग ने फार्मा उद्योग के खिलाड़ियों द्वारा अनैतिक प्रथाओं पर अंकुश लगाने के प्रयास के लिए जनवरी 2015 से लगे 'फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिस (यूसीपीएमपी) के लिए समान संहिता' के तहत आत्म-विनियमन के लिए पर्याप्त कोशिशें की हैं। यह संहिता चिकित्सा प्रतिनिधियों, विज्ञापन प्रचार, नमूनों, उपहारों, आतिथ्य, यात्रा वाउचर या फार्मा कंपनियों द्वारा स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों या उनके परिवारों को दी जाने वाली नकदी के आचरण को नियंत्रित करती है। हालांकि संहिता में वर्णित कोई भी मुद्दा कानून के माध्यम से लागू करने योग्य नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार आचरण संहिता को लागू करने योग्य बनाये जाने के मामले में अपने पहले के दृष्टिकोण से पीछे हट गई है। 2020 में संसद में एक जवाब में सरकार ने खुलासा किया था जिसमें कहा गया था कि विभाग में अनैतिक प्रथाओं से संबंधित शिकायतों से निपटने का कोई प्रावधान नहीं है और इन्हें फार्मा एसोसिएशनों में एक नैतिक समिति द्वारा संभाला जाएगा।
कदाचार को रोकने के लिए अनुशंसित स्वैच्छिक कदमों ने अब तक बहुत कम काम किया है। पूरे भारत में तबाही मचाने वाली महामारी के तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट का ज्वलंत स्वास्थ्य मुद्दे पर विचलित होना इस बात का संकेत है कि कॉर्पोरेट शक्ति के साथ सरकारी नीतियां कितनी पंक्तिबद्ध हो सकती है और वे आम नागरिकों के नुकसान के लिए काम कर सकती हैं।
फार्मा सेक्टर आर्थिक क्षेत्र में हाई ग्रोथ के लिए जाना जाता है। भारत में इस क्षेत्र के बाजार का आकार 50 अरब डॉलर का है। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व स्तर पर इसकी शक्ति और पहुंच बढ़ी है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2021-22 को समाप्त हुए आठ वर्षों में इस क्षेत्र के निर्यात में लगभग 10 अरब डॉलर की वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र का सरकार बड़ा सम्मान करती है। सरकार ने अगले तीन वर्षों में 500 करोड़ रुपये की मदद से फार्मा क्षेत्र को मजबूत करने के लिए मार्च में एक प्रोत्साहन योजना की घोषणा की थी। यह भी सच है कि सरकार प्रमुख दवाओं और उपकरणों की कीमतों को नियंत्रण में रखने में सफल रही है। वैश्विक निर्माताओं और भारतीय वितरकों के कड़े प्रतिरोध के बावजूद हाल ही में मेडिकल स्टेंट को जिस तरह से मूल्य नियंत्रण व्यवस्था के तहत लाया गया था वह सरकार द्वारा शक्तिशाली लॉबी और दवा क्षेत्र में विशेष रुचि समूहों के खिलाफ खड़े होने का एक उल्लेखनीय उदाहरण था।
फिर भी, मरीजों के हितों के खिलाफ दवा बिक्री में हो रहा कदाचार जारी है। यह कदाचार फार्मा क्षेत्र के उद्योगपतियों तथा चिकित्सकों को अनुचित रूप से, यहां तक कि आपराधिक रूप से समृद्ध करता है। इस कदाचार से भारत को दवा क्षेत्र को वैश्विक स्तर पर अधिक पेशेवर या प्रतिस्पर्धी बनाने में मदद नहीं मिलेगी। बिक्री बढ़ाने के ये तरीके जिस तरह से नियमित और दस्तूर के रूप से स्वीकार किए जाते हैं वे केवल भारत की प्रतिष्ठा को नीचे गिराएंगे। ये सवाल भी उठ सकते हैं कि क्या भारतीय कंपनियां वास्तव में एक ऐसे क्षेत्र में वैश्विक मानकों के अनुसार काम कर सकती हैं जो अनिवार्य रूप से किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक विनियमित है। पूरे देश द्वारा सामान्यीकृत और माफ किया गया भ्रष्ट आचरण भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देने का संकेत है। कदाचार की यह पद्धति मानकों को बढ़ाने या नवाचार करने अथवा बाजार को बढ़ाने के लिए नई रणनीतियों के निर्माण करने का निमंत्रण नहीं है।
दवा क्षेत्र और राष्ट्र पहले से ही निश्चित खुराक संयोजनों (एकल खुराक, जो दो या दो से अधिक अनुमोदित सक्रिय दवा सामग्री का कॉकटेल हैं) और ब्रांड नामों की अधिक जटिल समस्या का सामना कर रहे हैं। इनमें से कई संयोजनों की आवश्यकता नहीं है या वे स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं द्वारा अनुशंसित नहीं हैं अथवा वैश्विक बाजारों में प्रतिबंधित होने के बावजूद बेचे जा रहे हैं। कम से कम ब्रांडेड-जेनेरिक दवाओं के मामले में स्थिति पहले से ही नियंत्रण से बाहर हो सकती है। 2021 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने बताया कि 'अगस्त 2019-जुलाई 2020 के दौरान भारत के फार्मास्यूटिकल्स बाजार में 2,871 फॉर्मूलेशन से जुड़े 47,478 ब्रांड थे जिसका अर्थ है कि प्रत्येक फॉर्मूलेशन के लिए औसतन 17 ब्रांड मौजूद हैं।'
हमें एक मजबूत कानून के लिए जोर लगाना होगा जो दवा कंपनियों को रिश्वत देने तथा डॉक्टरों को नुस्खा लिखने के लिए प्रेरित करने से रोकने तथा दोषियों को जेल भेजने में सक्षम हो। ऐसा कानून दवा क्षेत्र के लिए सबसे अच्छी दवा बन जाएगा जो आर्थिक उन्नति के उज्ज्वल भविष्य का वादा करता है लेकिन कदाचार के दलदल में फंस गया है जिस पर वह गर्व नहीं कर सकता है।